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निंदा - अवगुणों की जन्मदात्री है

लोगो को जीतना हो, विश्व को मित्र बनाना हो तो विशुद्ध, निःस्वार्थ, सात्त्विक प्रेम करना सीखे । किसी के प्रति जरा सी भी घृणा साधना मे बाधक है । किसी की भी निंदा न करें । हमेशा गुणग्राही बने, निंदा करने से नुकशान होता है । पातंजल योग दर्शन मे संकल्प शक्ति का सुंदर वर्णन है । अगर कोई व्यक्ति ऐसा संकल्प करें कि मेरे मे सिंह-हाथी जैसा बल आए तो दृढ़ संकल्प शक्ति की वजह से वह सत्य भी होता है । 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' शास्त्रोंमें साधना के रहस्यमें दर्शाया गया है कि - देवता बनके देवता का पूजन करे अर्थात् पूजा-ध्यान के समय ऐसा संकल्प करें कि - में राम-कृष्ण-शिव-जगदम्बा हूँ और उसी हिसाब से मानसिक रूप से शरीर का श्रृंगार करोगे तो उस देव-देवी की शक्ति, संकल्प बल से साधक मे आ जाती है । फिर वह बोले या न बोले लेकिन वह स्वरूप प्राप्त कर लेता है । अर्थात् जैसा चिंतवन वैसा स्वरूप प्राप्त होता है । बारह मास और चौबीस घंटे मौका मिला नही की जो याद आया उसकी निंदा करते है, तो उस व्यक्ति के अवगुण निंदक के शरीर मे सूक्ष्म रूप से प्रवेश करने लगते है । परिणाम स्वरूप निंदक अवगुणों की खान बन जाता है । कुछ लोग तर्क करते है कि - हम तो उस व्यक्ति की सच्ची बात बता रहे है, वो जैसी है वैसी बता रहे है । उसका जवाब यह है कि - दुसरो में दोष देखने का अधिकार गुरु, आचार्य और बड़ो को होता है । दूसरे अर्थ मे यह कह सकते है कि - जो दूसरों में बदलाव ला सकता हो वही दुसरो के दोषों की ओर उँगली क़र सकता है । हम खुद को और अपने परिजनों को बदलने की क्षमता न रखते हो और गाँव, शहर और देश बदलने की बाते करे ये कितने हद तक सही है ? कहने का तात्पर्य यह है कि - दूसरों के दोष देखने की बुरी आदत से बचे ।

एक ब्रह्मचारी को पूरे शरीर मे कुष्ठ रोग हुआ । गुरुदेव के पास जा के बात की । गुरुदेव ने सलाह देते हुए कहा कि - "किसी अनजान गाँव मे अपनी सगी बहन को सेवा के लिए साथ मे ले जाना । वहाँ के लोगो से अपने भाई-बहन के रिश्ते का उल्लेख न करें ।" गुरुदेव की आज्ञा के अनुसार साधक रहने लगा । थोड़े ही दिनों में वायु वेग से गाँव में गंदी बाते फैलने लगी । "वो भेखधारी तो व्यभिचारी है, लंपट है..." पहले तो साधक डर गया लेकिन गुरुदेव की आज्ञा होने की वजह से वह मौन रहा। थोड़े ही दिनों में साधक के शरीर पर से कुष्ठ रोग के दाग-धब्बे निकलने लगे । केवल माथे पे एक निशान रह गया । गुरुदेव के पास जाके, भाव-विभोर होके, दंडवत प्रणाम कर के, माथे के छोटे से निशान की बात की । अंतर्यामी गुरुदेव ने कहा कि - "उस गाँव मे एक कुम्हार भक्त रहता है। निखलसता के प्रतीक समान उस भक्त ने कभी तेरी निंदा नहीं की । इसीलिए वह छोटा सा निशान रह गया है । गाँव वालों ने निंदा की बारिश कर दी इसीलिए तेरा कुष्ठ रोग अदृश्य हो गया ।"

निंदा सहने की शक्ति तो विरल महापुरूष में ही होती है, सब मे नहीं होती । सदगुरु साधक का कल्याण ही चाहते है । साधक को जल्द से जल्द लक्ष्य प्राप्ति हो इसीलिये निंदकों को खड़ा करके साधक के कर्मो का क्षय करवाते है । कबीरजी के जीवन मे घटी हुई घटना बहोत ही रहस्यमई है । काशी के मुकुट समान कबीरजी की कीर्ति चारो ओर फैली हुई थी । काशी नरेश सार्वजानिक तौर पे कबीरजी का सन्मान करने के लिए तत्पर हुए । इसलिए विरोधीयो को तकलीफ हुई । कबीरजी काशी नरेश के नजदीक पहोंच जायेंगे और हम चने-मुरमुरे की तरह उड़ जायेंगे । विरोधीयोने षड़यंत्र रचा । पतित पावनी गंगा के तट पर विशाल जनमेदनी कबीरजी का सन्मान देखने के लिए एकत्रित हुई । काशी नरेश तो अति आनंदित होकर गंगा के पट में तेजी से कबीरजी की ओर बढ़ रहे थे । सदगुरु का स्मरण करते हुए कबीरजी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे । केवल १२ से १५ फुट का अंतर बाकी था तभी काशी की नामी वेश्या कबीरजी का हाथ पकड़ कर बोली कि - "मैने आपको क्या नही दीया?? रात को मेरे यहाँ दारू पिकर मांसाहार करते थे तब मुझे साथ मे रखते थे और सन्मान के समय भूल गए?" काशी नरेश तो अवाक ही रह गए । पुष्पवृष्टि करने एकत्रित हुए लोग गालियों की वर्षा करने लगे लेकिन कबीरजी तो शांत ही रहे । वेश्या से हाथ छुड़ाने का भी प्रयत्न नही किया इसलिए लोगो ने ये बात सच मान ली । वेश्या को घर ले गए। राजा ने भी कबीरजी के घर के आसपास जासूस लगा दिए । कबीरजी अचानक ही विचित्र स्थिति में आ गए । वेश्या तीन दिन तक कबीरजी के घर मे ही रही । कबीरजी गुरुमंत्र का जप कर रहे है । मन ही मन गुरु से बात कर रहे है । एक तरफ गुरु का मौन और एक तरफ वेश्या का मौन । तीन दिन बाद वेश्या रोते बिलखते माफी मांगने लगी कि - "प्रभु ! मुझे क्षमा कीजिये । आपके विरोधियो ने धन का लालच देकर मुझे यह नीच कर्म के लिए प्रेरित कीया है । आप बिलकुल निर्दोष है । में ही नीच, पापी, अधम हूँ । मुझे क्षमा किजिये, मुझे क्षमा कीजिये।" कबीरजी वेश्या को कहते है कि - "माँ ! तेरा उपकार मे कैसे भूलू ? तेरी वजह से मैं प्रशंसा, प्रतिष्ठा और कीर्ति के अभिमान से बचा हूँ। तेरा खूब-खूब धन्यवाद ।" राजा के जासूस ये गुप्त बात राजा को बताते है तब राजा को बहुत पस्तावा होता है । इस तरफ सदगुरु कबीरजी को बताते है कि - "आपके थोड़े से कर्म कटने बाकी थे । मेरे शिष्य को इसी जन्म में और अभी मुक्ति देने के लिए इस प्रक्रिया का होना जरूरी था। लोगों ने हर जगह निंदा कर-करके कर्मो को काट दिया है । अब आप बिल्कुल निर्मल हो गए है । भजन-साधना के साथ थोड़ी निंदा-टिका हो तो लक्ष्य की प्राप्ति जल्दी होती है । " कबीरजी मन ही मन सदगुरु को प्रणाम करके सहज समाधि की मस्ती लुंटते हुए गाने लगे:-

साधो सहज समाधि भली।
सो सद्गुरु मोहे भावे जो सहज समाधि लगावे ॥

भोलेनाथ शंकर भगवानने विषपान किया, उसका अर्थ यह है कि - जगत मे विषरूप बन रहे मान-अपमान, निंदा-प्रशंसा, अनुकूलता- प्रतिकूलता आदि पी लेनेवाला ही "नीलकंठ" कहलाता है। निंदक धोबी का काम करता है। निंदक साधक के दोषों की ओर ध्यान आकर्षित करते है, मददरूप होते है। निंदक की प्रशंसा करते हुए, कबीरजी कहते है कि -

निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय ।
बिनपानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय ॥

लेकिन निंदक मिलना आसान नहीं है, कबीरजी की फरियाद है कि,

कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिले हजार ।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार ॥


~प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज,
गिरनार साधना आश्रम, जूनागढ़

॥ हरि ॐ तत्सत् जय गुरुदत्त ॥
(प.पू. पुनिताचारीजी महाराज की ४५ साल की कठोर तपस्या के फल स्वरुप उन्हें भगवान दत्तात्रेय से साधको के आध्यात्मिक उथ्थान और मानसिक शांति के लिए प्राप्त महामंत्र )



"जीवन मुक्त महापुरूष तो निंदा-प्रशंसा से परे होते है । वे सबका कल्याण ही चाहते है लेकिन कुदरती रूपसे ही उनके पूण्य उनके प्रसंशको में और पाप उनके निंदकों में दाखिल हो जाते है ।"

"मेरी थाली मे जो परोसोगे वह सब में खाऊं जरूरी नहीं है, में प्रशंसा का भोजन नहीं करता । "

"लोग तो मेरे विषयमें जो मनमें आये बोलते है, लेकिन में तो सदा मस्त रहता हूँ और सबका कल्याण ही इच्छ्ता हूँ ।"

~(प.पू. महर्षि पुनिताचारीजी महाराज)




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